आज की पीढ़ी के सामने अगर गिल्ली डंडा नाम के खेल का जिक्र किया जाये तो उन्हें इस खेल का नाम सुनकर बहुत आश्चर्य होगा। शायद उन्होंने इस खेल का क...
आज की पीढ़ी के सामने अगर गिल्ली डंडा नाम के खेल का जिक्र किया जाये तो उन्हें इस खेल का नाम सुनकर बहुत आश्चर्य होगा। शायद उन्होंने इस खेल का कभी नाम भी नहीं सुना होगा। नई पीढ़ी के सामने अब इस तरह के देशी खेलों का ना तो कोई महत्त्व हैं, ना ही उसकी कोई रुचि है और ना ही समय है। नई पीढ़ी नए जमाने के खेलों के प्रति काफी ज्यादा उत्साहित हैं जिनमे अधिकतर खेल कंप्यूटर और मोबाइल पर खेले जाते हैं।
अब न तो खेलनें के लिए हर कही खेल के मैदान बचे हैं और न ही खेलने के लिए वक्त बचा है। एक वक्त वो था जब हमारे पास खेलने के सिर्फ देशी खेल ही हुआ करते थे जिनमे प्रमुख गिल्ली डंडा, सतोलिया, मार-दड़ी, कबड्डी, कुश्ती, खो-खो, लट्टू घुमाना, कंचे खेलना, छुपम-छुपाई, चिर-भिर, चोपड़ पासा आदि प्रमुख खेल थे। इन देशी खेलों को खेलने के लिए विशेष तरह के खेल के मैदानों की आवश्यकता नहीं होती थी वरन जहा पर भी खाली जगह दिख जाती थी वो ही मैदान बन जाया करता था। ये सारे के सारे खेल काफी सस्ते हैं जिनमे ज्यादा धन खर्च करने की जरुरत नहीं पड़ती। इन सभी खेलो में से हम गिल्ली डंडा खेल के बारे में बात करते हैं।
गिल्ली डंडा खेलने के लिए महज दो लकड़ी के डंडो तथा खिलाड़ियों की आवश्यकता पड़ती थी। इन दो डंडो में एक डंडा लगभग 2 फीट की लम्बाई का होता था जिसका एक सिरा नुकीला होता था जिसे डंडा कहा जाता था। दूसरा डंडा करीब 4 से 6 इंच की लम्बाई का होता था जिसके दोनों सिरे नुकीले होते थे और इसे गिल्ली कहा जाता था। गिल्ली और डंडा अपनी हैसियत के हिसाब से बनवाया जाता था, जो लोग कुछ धन खर्च करने की स्थिति में होते थे वे उसे बढई के यहाँ से बनवाते थे और बाकि लोग नीम या बबूल की लकड़ी तोड़कर उसे सुखा कर गिल्ली डंडा तैयार कर लेते थे। गिल्ली डंडा न्यूनतम दो खिलाड़ियों द्वारा भी खेला जा सकने वाला खेल है तथा अधिकतम अपनी सुविधानुसार खिलाड़ी रखे जा सकते हैं।
पहले सभी खिलाड़ियों का क्रम तय किया जाता था कि पहले किस की बारी आएगी। खेलने का क्रम तय करने का तरीका भी काफी रोचक था जिसमे सब खिलाड़ी एक तरफ इकठ्ठा हो जाते थे तथा एक खिलाड़ी उनकी तरफ मुख करके खड़ा होता था और एक खिलाड़ी इस खिलाड़ी के पीछे खड़ा होकर अपने दोनों हाथो की उंगलियों को खड़ा करता था तथा उससे पूछता था की ये किसका नंबर है। जिसका नाम बोला जाता था वो उसी का नंबर माना जाता था।
खेलनें का क्रम निर्धारित होने के पश्चात एक पक्की सी जगह चुनकर वहाँ सीधा लम्बा लगभग 8 से 12 इंच के आसपास का गड्ढा बनाया जाता था जिसे गुत्थी कहा जाता था। अब खिलाड़ी अपनी बारी के अनुसार गिल्ली को गिच पर रखकर डंडे से शेष खिलाड़ियों की तरफ पूरी ताकत से उछालता था, अगर गिल्ली को किसी खिलाड़ी द्वारा हवा में पकड़ लिया जाता तो वो खिलाड़ी आउट हो जाता था। अगर गिल्ली को हवा में नहीं पकड़ा जाता तब वो जहाँ पर गिरती वहाँ से डंडे से उसके किनारे पर हल्का सा मारकर उसे ऊपर उछालकर फिर डंडे से मारकर गिच से अधिक से अधिक दूर तक ले जाया जाता था। अगर खिलाड़ी उछालकर मार पाने में असमर्थ रहता था तब फिर वहाँ से गिच तक की दूरी डंडे द्वारा नापी जाती थी। यही दूरी उसके अंको का पैमाना होती थी।
ये प्रक्रिया खिलाड़ी के आउट होने तक अपनाई जाती थी और सभी खिलाड़ियों में जिसके सर्वाधिक अंक होते थे वही विजेता होता था। आज कल इस तरह के खेल मृत प्राय हो गए हैं तथा इनमे अब किसी की रुचि नहीं है क्योकि अब मनोरंजन के सीमित साधन नहीं है। इन देशी खेलों ने शहरों में तो बहुत पहले ही दम तोड़ दिया था और गाँवों से इनको जीवित रखने की बहुत उम्मीद थी परन्तु वो उम्मीद भी अब समाप्त हो गई है। गाँवों में भी तकनीक ने पैर पसार लिए हैं तथा वहाँ पर भी शहरी जीवन का अंधानुकरण किया जा रहा है और इन खेलो के जिन्दा होने की रही सही उम्मीद भी खत्म हो गई है।
साभार - ज्वारभाटा